पिचले तीन दशको में, भारतीय सामाजिक मूल्यों में भारी परिवर्तन दृष्टिगत है .और ये परिवर्तन सतत है. समाज के हर पक्ष से उदहारण लिये जा सकते ही. शुरुआत करते ही हिंदी फिल्मों के गानों से ,हमारी उम्र के लोग ये तो जरूर कहते ही की , आज के संगीत में वो बात नहीं है, लेकिन बात ये ही कह देने से ख़तम नहीं हो जाती,हम यदि गौर करे, फिल्मे सदैव से समाज का दर्पण रही ही, मौजूदा समाज में "मुन्नी बदनाम हुई" और "शीला की जवानी" जैसे अश्लील गाने इस लिये लोकप्रिय हो रहे है,क्यूंकि हम इन्हें अश्लील कहने का सहस खोते जा रहे ही.आधुनिकरण के युग में सब खुच चलता है के नाम पे खुच भी बर्दास्त करने को तैयार ही.न सिर्फ गाने दबंग जैसी निरथर्क फिल्मे बॉक्स ऑफिस में सुपरहिट है.
एक समय था जब सामजिक स्तरीकरण में उस वर्ग को ऊँचा स्थान दिया जाता था जो इमानदारी, निष्ठां, प्रेम, सहयोग, और सहनशीलता जैसे मूल्यों के पालक एवं वाहक होते थे, आज हम उस वर्ग को सर पे बैठाये हुए ही जो दबंग है , तीस मार खान है और मुन्नी को बदनाम करने की ताकत रखता है , जो जितना हि कला धन समेटे ही उसे उतना ही ऊँचा दर्जा प्राप्त है .मैं फिर येही कहूंगी की इन्हें ये दर्ज़ा देने वाले भी हम हैं, क्यूंकि हमे सच को सच कहने और सुनने का और झूठ को झूठ कहने और सुनने का साहस खो चुके हैं.
शिक्षा व्यवस्था का जिक्र किये बिना यह बहस पुरी न होगी. पिचले दिनों, मैंने कुछ शोध किये और ये पाया की भारत के गुडगाव के बहुत ही प्रतिष्ठित नुर्सेरी स्कूल के दाखिले की लिए २ लाख /- डोनेशन तथा ५६ हज़ार रुपये फीस लगती है, लोग एस स्कूल में दाखिला पाने या न पाने को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ते ही. मैं अच्छी सिक्षा के विरोध में नहीं हूँ किन्तु ये अवश्य जानने की इक्षा रखती हूँ की २ लाख रुपये में, भारतीयभूमि पे बनाये गए इन विदेशी स्कूल में किस विशेष प्रकार की शिक्षा बेचीं जा रही है. मैं अंत इन्ही शब्दों से करूंगी, की ये आप ही और हम है जिनोहने शिक्षा को प्राप्त करने में और खरीदने में भेद है इस विचार को स्वीकार करने का साहस खो दिया ही.
शिक्षा व्यवस्था का जिक्र किये बिना यह बहस पुरी न होगी. पिचले दिनों, मैंने कुछ शोध किये और ये पाया की भारत के गुडगाव के बहुत ही प्रतिष्ठित नुर्सेरी स्कूल के दाखिले की लिए २ लाख /- डोनेशन तथा ५६ हज़ार रुपये फीस लगती है, लोग एस स्कूल में दाखिला पाने या न पाने को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ते ही. मैं अच्छी सिक्षा के विरोध में नहीं हूँ किन्तु ये अवश्य जानने की इक्षा रखती हूँ की २ लाख रुपये में, भारतीयभूमि पे बनाये गए इन विदेशी स्कूल में किस विशेष प्रकार की शिक्षा बेचीं जा रही है. मैं अंत इन्ही शब्दों से करूंगी, की ये आप ही और हम है जिनोहने शिक्षा को प्राप्त करने में और खरीदने में भेद है इस विचार को स्वीकार करने का साहस खो दिया ही.
अनुपमा
Thank you Anupma Ji for brining this subject up. Unfortunately, we Indians have brazenly given up all the basic values of life. We are too complacent about our growing GDP and increasing numbers of cars and all these mushrooming american cheap food joints such as McDonals and KFC in India and without thinking twice consider them a measure of national growth per se. Well, one has to understand no nation can be considered "Great" without keeping its own identity and values intact. We are too happy with producing dignified laborers for western companies: technicians, engineers, IT professionals, doctors, and scientists who can work for multinational companies instead of inspiring those bright kids of India to become leaders in their field.
ReplyDeleteYes, I am talking about those costly schools who take 2 lakhs rupees as donations. What is the outcome of those schools- a very bright kid who could have otherwise become a Raman, Basu, Khurana, Raghu Rai, or Bhimsen Joshi has now turned into a meek technocrat who can speak a foreign language very fluently and can do any job be it computer, management or scientific research or anything else at three times less salary than his american counterpart thus so much demanded everywhere. This certainly makes happy those parents and our society who are still "Aatmamugdha" with our so called success with increasing GDP, but let us think seriously....is it really our success as a society or nation???