Tuesday, June 12, 2012

सत्यमेव जयते: एक उम्मीद???



 
इस कार्यक्रम के पहले एपिसोड के प्रसारण के बाद सोशल मीडिया खासकर ट्विट्टर और फेसबुक पर प्रशंसात्मक और आलोचनात्मक टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गयी. दरअसल हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम हिन्दुस्तानी आदतन हमेशा एक  मसीहा की खोज में रहते हैं. वे जो इस कार्यक्रम की प्रशंसा करते नहीं अघा रहे हैं वो कहीं न कहीं ये उम्मीद भी लगा बैठे हैं कि आमिर खान ही वो मसीहा हैं जो हिंदुस्तान में होने वाली कन्या भ्रूण हत्यायों पर रोक लगा देंगे. वहीं आलोचना करने वाले इस बात को लेकर हल्ला मचा रहे हैं कि ऐसे कार्यकमो से सामाजिक कुरीतियां नहीं दूर होने वालीं.  दरअसल हमारे समाज में ऐसे ही extremist विचारधारा वाले लोगो की संख्या ज्यादा है, या तो हम अति आशावादी है या तो अति निराशावादी जबकि ये दोनो ही स्थितियां कोई दिशा नहीं देतीं. 

और इसी बात को आमिर ने अपने इस पूरे कार्यक्रम में सबसे खूबसूरती से कहा कि "उनके पास एक जादू की छड़ी है और वह जादू की छड़ी हम और आप है". आमिर के सारे प्रशंसक बजाय यह उम्मीद करने कि अब एक मसीहा आ गया है जो जो पूरे समाज से कन्या भ्रूण हत्या को मिटा देगा या फिर निराशावादी इस बात पर माथापच्ची करने कि इस कार्यक्रम से कुछ नहीं होने वाला, सिर्फ इस जादू की छड़ी वाली बात पर ध्यान दें कि कैसे वे खुद के स्तर पर, अपने परिवार में, अपने रिश्तेदारों में, और अगर हो सके तो अपने पड़ोस में लोगों की सोच बदल सकें तो यही एक बात बहुत बड़ा गुणात्मक परिवर्तन ला सकती है. याद करिए अभी पिछले ही साल इसी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन की आशा हमने अन्ना के भ्रष्टाचार हटाओ आन्दोलन से की थी, अलग अलग शहरों में लोग मोमबत्तियां लेकर निकल पड़े और बहुतों ने अन्ना की  तुलना गाँधी से और उनके आन्दोलन की तुलना करनी आज़ादी के आन्दोलन से करनी शुरू कर दी और सोचा कि अब रातों रात देश से भ्रष्टाचार दूर हो जायेगा. और संदेहवादी/निराशावादी अपनी आदत के अनुरूप अन्ना और उसकी टीम के लोगों में मानवीय गलतियाँ ढूँढने लगे फिर धीरे-धीरे जो अन्ना को मसीहा समझ कर किसी चमत्कार की उम्मीद में थे उनका भी मोह जल्दी ही भंग हो गया.  दरअसल यहीं एक बड़ा ही सूक्ष्म परन्तु महत्त्वपूर्ण अंतर है जो सामाजिक आंदोलनों को अन्य आंदोलनों जैसे आज़ादी की लड़ाई से अलग करता है - जहाँ आज़ादी की लड़ाई में एक स्पष्ट और पूर्ण परिभाषित दुश्मन था जिससे लड़ाई लडनी थी, वहीं ऐसे सामाजिक आन्दोलन में दुश्मन कोई और नहीं बल्कि हम खुद होते होते हैं. खुद से लड़ाई लड़नी होती है, अगर भ्रष्टाचार मुद्दा है तो खुद को यह समझाना बड़ा मुश्किल होता है कि रिश्वत नहीं लेनी है, या फिर रिश्वत न देकर लाइन में लग कर कोई काम करवाना है. फिर जब लड़ाई खुद से है तो कोई मसीहा क्या कर सकता है? उससे आखिर सामाजिक परिवर्तन की भारी भरकम उम्मीद क्यों? जबकि परिवर्तन की कुंजी खुद हमारे पास है!     

कुछ लोग आमिर के इस कार्यक्रम की सार्थकता पर बहस न कर उनके छिपे हुए व्यावसायिक उद्देश्यों पर प्रश्न उठा रहे हैं. मुझे लगता है कि कहीं न कहीं समाजवाद के पुराने पड़ चुके चश्मे पहने तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवी आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते कि कोई पूजीवादी या धनी व्यक्ति भी सामाजिक हित में योगदान कर सकता है. साम्यवाद के प्रवर्तक, महान विचारक मार्क्स की विचारधारा को विश्व के सामने लाने में उनके अभिन्न मित्र Friedrich एंगेल्स  का आर्थिक योगदान किसी से छिपा नहीं है. अमेरिका जैसे पूंजी प्रधान समाज में सदियों से विश्व स्तरीय वैज्ञानिक और तकनीकी शोध कार्यक्रमों (जिससे न सिर्फ अमेरिका का बल्कि पूरे विश्व का भला होता है) के अलावा अनेक जन कल्याण (philanthropy) कार्यक्रमों को चलाने में  वहां के पूंजीपतियों और celebrities का योगदान हमेशा से बहुत महत्वपूर्ण रहा है. कुल मिलाकर यह एक अच्छी बात है कि किसी भारतीय सेलेब्रिटी ने पहली बार ऐसी सार्थक बहस छेड़ी है और अब जिम्मेदारी हमारे कन्धों पर है....

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